Red Paper
Contact: +91-9711224068
  • Printed Journal
  • Indexed Journal
  • Refereed Journal
  • Peer Reviewed Journal
International Journal of Social Science and Education Research
Peer Reviewed Journal

Vol. 7, Issue 2, Part L (2025)

सामाजिक पुनरुत्पादन का आधार: महरियों (दाइयों) की भूमिका का वैश्विक–भारतीय सैद्धांतिक दृष्टिकोण

Author(s):

Doly Kumari and Sujit Kumar

Abstract:

सामाजिक पुनरुत्पादन (Social Reproduction) का सिद्धांत समाज के उन अदृश्य श्रम–प्रक्रियाओं को समझने का प्रयास करता है, जिनके माध्यम से श्रम–शक्ति का जैविक, सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण होता है। इस संदर्भ में महरियाँ (दाइयाँ) मातृत्व, प्रसव और देखभाल–कार्य के माध्यम से सामाजिक पुनरुत्पादन की एक केंद्रीय, किंतु उपेक्षित कड़ी के रूप में उभरती हैं। वैश्विक स्तर पर नारीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र ने दाई–कार्य को स्त्री–केन्द्रित देखभाल–श्रम के रूप में चिन्हित किया है, जिसे पूंजीवादी व्यवस्था ने आवश्यक होते हुए भी अवैतनिक या अल्प–मूल्यवान श्रम के रूप में स्थापित किया।

भारतीय संदर्भ में महरियों की भूमिका ऐतिहासिक, जातिगत और लैंगिक संरचनाओं से गहराई से जुड़ी रही है। परंपरागत समाज में महरियाँ केवल प्रसव–सहायिका नहीं थीं, बल्कि वे सामाजिक निरंतरता, सामुदायिक स्वास्थ्य और सांस्कृतिक पुनरुत्पादन की वाहक थीं। किंतु औपनिवेशिक काल, चिकित्सा के पेशेवरकरण और आधुनिक राज्य–नीतियों के हस्तक्षेप के साथ दाई–कार्य को “अवैज्ञानिक” घोषित कर दिया गया, जिससे यह श्रम औपचारिक स्वास्थ्य तंत्र से बाहर हो गया। परिणामस्वरूप महरियाँ सामाजिक पुनरुत्पादन की भूमिका निभाती रहीं, किंतु आर्थिक, सामाजिक और नीतिगत स्तर पर अदृश्य बना दी गईं।

यह शोधपत्र तर्क प्रस्तुत करता है कि महरियों की भूमिका को समझे बिना न तो मातृ–स्वास्थ्य की संपूर्ण व्याख्या संभव है और न ही सामाजिक न्याय की। वैश्विक नारीवादी सिद्धांत और भारतीय सामाजिक यथार्थ के संवाद के माध्यम से यह अध्ययन यह स्थापित करता है कि महरियाँ सामाजिक पुनरुत्पादन की आधार–शिला हैं, और उनका पुनर्समावेशन केवल स्वास्थ्य–नीति का नहीं, बल्कि समानता, गरिमा और श्रम–अधिकारों का प्रश्न है।

मार्क्सवादी–नारीवादी सिद्धांत सामाजिक पुनरुत्पादन को उस केन्द्रीय प्रक्रिया के रूप में देखता है, जिसके माध्यम से श्रम–शक्ति का जैविक, सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण होता है। यह सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था केवल कारखानों, बाज़ारों और वेतन–आधारित श्रम पर नहीं टिकी होती, बल्कि उसके अस्तित्व के लिए अवैतनिक, कम–मूल्यवान और स्त्री–केन्द्रित देखभाल–श्रम अनिवार्य होता है। इस संदर्भ में महरियाँ (दाइयाँ) सामाजिक पुनरुत्पादन की एक ऐसी आधारभूत कड़ी हैं, जिनका श्रम जीवन के आरंभिक क्षणों—गर्भावस्था, प्रसव और प्रसवोत्तर देखभाल—से जुड़ा हुआ है, किंतु जिन्हें ऐतिहासिक रूप से अदृश्य और अवमूल्यित किया गया है।

वैश्विक स्तर पर नारीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र ने दाई–कार्य को केयर वर्क (Care Work) और रिप्रोडक्टिव लेबर (Reproductive Labour) के रूप में विश्लेषित किया है, जिसे पूंजीवाद ने आवश्यक होते हुए भी आर्थिक मान्यता से वंचित रखा। भारतीय संदर्भ में यह श्रम जाति, लिंग और गरीबी की संरचनाओं से और अधिक जटिल हो जाता है। प्रस्तुत शोधपत्र यह तर्क प्रस्तुत करता है कि महरियाँ सामाजिक पुनरुत्पादन की रीढ़ हैं, और उनकी उपेक्षा न केवल स्त्री–श्रम के अवमूल्यन को दर्शाती है, बल्कि विकास, स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय की नीतियों की सीमाओं को भी उजागर करती है।

Pages: 951-955  |  78 Views  45 Downloads


International Journal of Social Science and Education Research
How to cite this article:
Doly Kumari and Sujit Kumar. सामाजिक पुनरुत्पादन का आधार: महरियों (दाइयों) की भूमिका का वैश्विक–भारतीय सैद्धांतिक दृष्टिकोण. Int. J. Social Sci. Educ. Res. 2025;7(2):951-955. DOI: 10.33545/26649845.2025.v7.i2l.461
Journals List Click Here Other Journals Other Journals