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International Journal of Social Science and Education Research
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Vol. 7, Issue 2, Part D (2025)

भारत में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा: मुफ़्तख़ोरी और कल्याणकारी योजनाओं की राजनीति के संदर्भ में विश्लेषण

Author(s):

नैनिका कुमारी

Abstract:

कल्याणवाद उतना ही पुराना है जितनी कि मानव सभ्यता। पूरे इतिहास में, राज्यों को वित्तीय असुरक्षा, आर्थिक या आय से वंचित होना और आजीविका की अनिश्चितता की साझा चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। समकालीन समय में, तेजी से औद्योगिकीकरण, आर्थिक आधुनिकीकरण और त्वरित वैश्वीकरण ने इन अनिश्चितताओं को बढ़ा दिया है, जिससे लगभग सभी देशों के लिए किसी न किसी रूप में सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी उपायों की आवश्यकता होती है। दो विश्व युद्धों के बीच की अवधि के दौरान कीनेसियन आर्थिक नीतियों के रूप में सामाजिक सुरक्षा को इस क्षेत्र में अधिक ध्यान मिला, जिसका प्राथमिक उद्देश्य एक उत्पादक और स्वस्थ कार्यबल का समर्थन करना था। भारत में सामाजिक कल्याण योजनाओं को बढ़ावा देने का एक लम्बा इतिहास रहा है, जिसके तहत देश की जरूरतमंद आबादी को वित्तीय सहायता और भौतिक वस्तुएँ वितरित की जाती है जो कि सामाजिक वंचना, आर्थिक और भौगौलिक कारणों से पिछड़ गए हैं जिससे उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने में मदद मिलती है। यह शोध पत्र भारत में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का मूल्याँकन करता है। भारतीय संविधान ने प्रस्तावना, राज्य के नीति निदेशक तत्व एवं अन्य अनुच्छेदों के माध्यम से कल्याणकारी राज्य की संकल्पना किया है। भारत का उच्चतम न्यायालय ने भी वर्ष 2024 में संविधान के प्रस्तावना पर निर्णय देते हुए कहा है कि इसमें उल्लेखित समाजवाद शब्द का मतलब सामाजिक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा है। संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ शब्द शामिल होने के बावजूद, भारत ने निजीकरण की ओर रुख किया और इससे लाभ उठाया। लेकिन हमने हर नागरिक के लिए समान अवसर पर भी ध्यान केंद्रित किया है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार करने के लिए सरकारों ने सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का क्रियान्वयन किया है। वर्तमान समय में कई योजनाओं और भौतिक वस्तुओं का वितरण किया जा रहा है जो कि सामाजिक कल्याण योजनाओं के विपरीत है। यह शोध पत्र कल्याणकारी राज्य की अवधारणा एवं इसको साकार करने के लिए सामाजिक योजनाओं के पहलुओं का मूल्याँकन करता है।
हालाँकि, ऐसे कई कल्याणकारी योजनाओं को अक्सर हैंड आउट या मुफ़्त कहा जाता है, जिनका वादा या वितरण चुनावी राजनीति में लाभ लेने के उद्देश्य से किया जाता है। इसे व्यापक रूप से जोड़-तोड़ के रूप में देखा जाता है जिसका उद्देश्य केवल मतदाताओं को प्रभावित करना होता है। ‘फ्रीबी' का शब्दकोश अर्थ एक ऐसी चीज़ है जो मुफ़्त में दी या प्रदान की जाती है। नीति आयोग ने 'फ्रीबीज़' को एक सार्वजनिक कल्याण उपाय के रूप में परिभाषित किया है जो मुफ़्त में राजनीतिक लाभ लेने के लिए प्रदान किया जाता है। नीति आयोग ने कहा है कि फ़्रीबीज को सार्वजनिक या कल्याणकारी उद्देश्यों जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा, वृद्धा पेंशन और अन्य राज्य व्यय से अलग किया जा सकता है जिनके व्यापक और दीर्घकालिक लाभ हैं। सभी प्रकार की फ़्रीबीज और कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन और इससे जुड़े वस्तुओं के वितरण से राज्यों पर वित्तीय भार पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान चुनाव से पहले मुफ्त चीजों की घोषणा करने पर कड़ी आलोचना की और कहा कि इस प्रथा के कारण लोग काम नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें मुफ्त राशन और पैसा मिल रहा है। यह बेहतर होगा कि कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक कारणों से पिछड़े लोगों को समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनाया जाए और राष्ट्र के विकास में योगदान करने की अनुमति दी जाए। राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों के द्वारा चुनाव के समय लोगों से मुफ़्त में उपहार अथवा वित्तीय मदद का वादा करने या फिर चुनाव से ठीक पहले इन वादों को क्रियान्वयन करने से परजीवियों का एक वर्ग तैयार हो रहा है जिसका नकारात्मक प्रभाव अर्थव्यवस्था और श्रमबल पर पड़ता है। अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान और कल्याणकारी उपायों के बीच संतुलन बनाना होगा। मुफ्त उपहार और सामाजिक कल्याण योजना अलग-अलग हैंभारत ने 1950 के दशक से अपनी आबादी की सामाजिक कल्याण आवश्यकताओं से निपटने के लिए संरचित और औपचारिक विधायी पहल विकसित करके बाजार की विफलताओं का जवाब देने की कोशिश किया है। यह शोध पत्र साहित्यिक समीक्षा के माध्यम से कल्याणकारी योजनाओं और मुफ़्तखोरी योजनाओं का तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

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How to cite this article:
नैनिका कुमारी. भारत में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा: मुफ़्तख़ोरी और कल्याणकारी योजनाओं की राजनीति के संदर्भ में विश्लेषण. Int. J. Social Sci. Educ. Res. 2025;7(2):313-325. DOI: 10.33545/26649845.2025.v7.i2d.362
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