Abstract:
मन अन्तःकरण है। उसकी ओर उन्मुख होने की क्रिया है मनन। मनन करने वाला व्यक्ति ‘मुनि’ कहलाता है। मनन की क्रिया बाहरी इन्द्रियों को अन्तर्मुख करने पर ही संभव है। इस प्रक्रिया में जब मुनि वागिन्द्रिय की क्रिया को स्थगित कर देता है तो उसकी भाव-दशा ‘‘मौन’’ कहलाती है। इसलिए कहा गया है कि- ‘मुनेर्भावः मौनम्’ अर्थात् मुनि का भाव ही मौन है। सामान्यतया चुप्पी को ही मौन कहते हैं।
स्वतः चुप रहना, विचार-दशा में चुप रहना, किसी प्रश्न के उत्तर में न बोलना, मनन की स्थिति में वाणी को स्थगित रखना आदि सब ‘मौन’ के क्षेत्र में आते हैं।
हमारी बाह्य ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में एक मात्र ‘वक्त्र’ या मुख ही ज्ञानेन्द्रिय भी है और कर्मेन्द्रिय भी। रसना या जिह्वा से स्वाद ग्रहण करते समय यह ‘ज्ञानेन्द्रिय’ है तो ‘वक्त्र’ से वर्णोच्चारण करते समय यह ‘कर्मेन्द्रिय’ कहलाती है। अतः इसके दो कार्य हैं- रसना (जीभ) से ‘‘स्वाद’’ और वक्त्र (वदन) से ‘‘वाद’’। लोक व्यवहार में ये दोनों ही आनंद (आस्वाद) के मूल हैं तो वाद-विवाद के झगड़े की जड़ भी हैं उक्ति है - ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’ यानी वाद-विवाद करने से, शास्त्रार्थ से तत्त्वज्ञान होता है किन्तु वाद बढ़ जाय तो कभी-कभी बड़ी मुश्किल भी खड़ी हो जाती है।
सत्य-अहिंसा के पुजारी अन्वेषक महात्मा गांधी ने अपनी प्रार्थना-सभा ‘‘मौन’’ को अन्तःप्रकाश बताते हुए कहा था - ‘‘मौन’’ के प्रकाश में आत्मा अपना रास्ता साफ़तौर पर पा जाती है। आपके भीतर जो कुछ दबा-छिपा होता है वह सब इस अवस्था में बिल्कुल साफ़ दिखने लगता है। इसलिए मौन कोई शून्यभाव नहीं, अन्तर्मन में आलोक का आनंदमय भराव है, निःशब्द नीरव संगीत का आन्तरिक गुंजन है।
प्रायः लोग दैनंदिन जीवन में कुछ समय ‘व्रत’ की तरह मौन की साधना करते हैं। यह अभ्यास दिन-भर शब्दों के अपव्यय से क्षीण होने वाली उनकी चेतना में नई स्फूर्ति भर देता है, उनकी आस्था और विश्वास को दिव्य ऊर्जा प्रदान करता है, कई प्रश्नों के उलझे ताने-बाने को सुगमता से सुलझा देता है। कैनेडियन कार्टूनिस्ट लिन जॉन्स्टन का कहना है - ‘‘सबसे जोरदार वक्तव्य अक्सर मौन से ही कहे जाते हैं।’’ एक सार्थक चुप्पी कई बार बड़बोले निरर्थक प्रश्नों का अनकहा उत्तर बन जाती है।