ललित कांडपाल
राजनितिक व्यवस्था में शासन-शक्ति के एक स्तर पर केन्द्रिकरण या अनेक स्तरों में वितरण के आधार पर शासन व्यवस्थाओं के तीन प्रतिमान मान्य रहे हैं| पहला एकात्मक प्रतिमान, जिसमें राज्य शक्ति का प्रयोग एक स्थान पर केंद्रित रहता है, दूसरा परिसंघात्मक प्रतिमान, जिसमें राज्य शक्ति का प्रयोग अनेक स्थानों पर केंद्रित रहता है तथा तीसरा संघात्मक प्रतिमान, जिसमें राज्य-शक्ति का प्रयोग दो स्तरों पर स्थापित, केन्द्रीय व राज्यों की सरकारों में निहित रहता है।
यद्यपि इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कोई सरकार एकात्मक और संघात्मक दोनों प्रतिमानों के तत्वों का विचित्र मिश्रण हो सकती है। संघीय शासन प्रणाली में सरकार की शक्तियों का पूरे देश की सरकार और देश के विभिन्न प्रदेशों की सरकारों के बीच विभाजन इस प्रकार किया जाता है| कि हरेक सरकार अपने-अपने क्षेत्र में कानूनी तौर पर एक दूसरे से स्वतंत्रत होती है। सारे देश में सरकार अपना ही अधिकार क्षेत्र होता है, और यह देश के संघटक अंगों की सरकारों के किसी प्रकार के नियंत्रण बिना अपने अधिकार का उपयोग करती है, और इन अंगों की सरकारें भी अपने स्थान पर अपनी शक्तियों का उपयोग केंद्रीय सरकार की किसी नियंत्रण के बिना ही करती है। विशेष तौर से, सारे देश की विधायिका की अपनी सीमित शक्तियां होती हैं, और इस प्रकार राज्यों या प्रान्तों की सरकारों की भी सीमित शक्तियां होती हैं। दोनों में ही कोई किसी के अधीन नहीं होती और दोनों एक दूसरे के समन्वयक होती हैं। दूसरी और, एकात्मक शासन प्रणाली में पूरे देश की विधायिका देश में सर्वोच्च कानून बनाने वाली प्राधिकरण है, यह अन्य विधायिकाओं की विद्यमानता और उनको अपनी शक्तियों के उपयोग के लिए इजाजत दे सकती है, लेकिन कानूनी तौर पर इसे यह शक्ति प्राप्त होती है कि वे उन पर अपना प्रभाव रख सके| वे इसके अधीन होती हैं| जैसा ऊपर इस बात की ओर संकेत किया गया है, कोई ऐसी राजनीतिक पद्धति हो सकती है जिसमें इन दोनों शासन प्रणालियों का ऐसा विचित्र मिश्रण हो किकेंद्रीय सरकार और स्थित क्षेत्रीय सरकारों के मुकाबले बहुत शक्तिशाली हो| ऐसी पद्धति को परिसंघात्मक कहा जा सकता है।
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