अनुपम कुमार सिंह, सपना मिश्रा
'माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्या' अर्थववेद में लिखित यह श्लोक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जनजातियों के जीवनशैली का अंग है। छत्तीसगढ़ भारत का एक प्रमुख राज्य है जहाँ जनजातीय बहुलता तथा उनकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत मिलती है। इस राज्य की विशेष रूप से कमजोर जनजाति अबुझमाड़िया, बैगा, बिरहोर, कमार और पहाड़ी कोरवा समेत कई जनजाति उरांव, कंवर, कोरकू, गोंड, मुरिया, हल्बा आदि का सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टिकोण अपने आप में विशिष्ट है और इनके जीवन में पर्यावरण व प्रकृति के प्रति विश्वास, आस्था भी काफी गहरी है। यह शोध पत्र छत्तीसगढ़ की जनजातियों की आस्था, विश्वास प्रणाली को भौगोलिक दृष्टिकोण से विश्लेषित करते हु, पर्यावरण संरक्षण में उनके पारंपरिक योगदान पर प्रकाश डालता है। ष्वन पुत्रष् कहे जाने वाले ये आदिवासी वृक्ष पूजा, टोटम, वन देवी की आराधना के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण की सहज प्रक्रिया को दर्शाती है। 'सरना' और 'देवस्थल' जैसे स्थानों पर वृक्षों को नहीं काटना, 'हरेली', 'सरहुल', 'पोडी', 'मड़ई' आदि पर्व परिस्थितिकी संतुलन, जैव विविधता व कृषि चक्र को प्रतिबिंबित करते हैं। इस शोध पत्र में प्राथमिक और द्वितीयक आँकड़ों का प्रयोग किया गया है। प्राथमिक आँकड़ों के लिए क्षेत्रीय सर्वेक्षण, साक्षात्कार, अवलोकन आदि का प्रयोग हुआ है। द्वितीयक आँकड़ो के लिए प्रकाशित रिपोर्ट, शोध पत्र आदि की मदद ली गई है। आधुनिकता, बढ़ती जनसंख्या, विकास आदि के इस युग में जनजातियों की आस्था व विश्वास प्रणाली ने पर्यावरण संरक्षण के लिए आदर्श प्रस्तुत किया है। भारत में पारम्परिक ज्ञान को बढ़ावा और LiFE जैसे कार्यक्रम आपसी समन्वय पर ही बल देते है। जनजातिय संस्कृति में आधुनिकता का प्रवेश पारंपरिक मान्यताओं को क्षीण कर रहा है। अतः शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं के लिए यह आवश्यक है कि जनजातियों की आस्था व विश्वास और पर्यावरण संरक्षण नीतियों में संतुलन स्थापित किया जाए। इससे न सिर्फ जनजातीय सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित होगी बल्कि पर्यावरणीय संरक्षण एवं सतत विकास की दिशा में नये विचारों को भी बल मिलेगा।
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