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International Journal of Social Science and Education Research
Peer Reviewed Journal

Vol. 7, Issue 2, Part A (2025)

समकालीन हिंदी कहानी में पितृसतात्मक विद्रोह के संरचनसत्मक एवं शैल्पिक आयाम

Author(s):

रजनी रानी

Abstract:
मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी लालसा यही है कि वह कहानी बन जाय।’-पे्रमचंद बन जाय।’-पे्रमचंद आज की कहानी पर गौर करें तो इसके स्रोत का कुछ-कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। कहानी एक सामाजिक सृजन है, उत्पाद नहीं। जब भी कोई दो लोग बातचीत करते हैं तो वे सिर्फ अपने बारे में ही बातें नहीं करते। उनकी बातचीत का विषय उनके संपर्क में आने वाले लोग तथा उनके परिवेश में घटने वाली घटनाएं भी होती हंै। घटनाएं कितनी ही तकलीफदेह क्यों न हो उन्हें वृत्तांत के रूप में व्यक्त करने में मनुष्य को बड़ा रस मिलता है। ये वृत्तांत कालांतर में किस्से-कहानी का रूप लेने लगते हैं। हर नये व्यक्ति के पास पहुंचने के बाद इनमें बहुत कुछ घटता तथा जुड़ता जाता है। इस प्रक्रिया में इसमें कुछ अलौकिक तथा असंभव किस्म की कल्पनाएं भी घुलती-मिलती जाती हैं। ये किस्से कालांतर में लोक कथाओं का रूप ले लेते हैं। यदि इन्हें लिपिबद्ध कर दिया तो ठीक वरना इसमें से कई समय के प्रवाह में दफन होते जाते हैं, जबकि कई समय के हिसाब से बदलते रहते हैं। ये किस्से कुछ खास परिवारों में पीकर समाप्त हो जाते हैं।1

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International Journal of Social Science and Education Research
How to cite this article:
रजनी रानी. समकालीन हिंदी कहानी में पितृसतात्मक विद्रोह के संरचनसत्मक एवं शैल्पिक आयाम. Int. J. Social Sci. Educ. Res. 2025;7(2):39-41. DOI: 10.33545/26649845.2025.v7.i2a.320
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