अवध नारायण
प्रारंभिक भारतीय वास्तुकला न केवल स्थापत्य कला की दृष्टि से बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक अभिव्यक्ति के रूप में भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यह वास्तुकला भारत की प्राचीन सभ्यताओं की जीवनशैली, विश्वास प्रणाली और कलात्मक रुचियों का प्रमाण प्रस्तुत करती है। सिंधु घाटी सभ्यता की योजनाबद्ध नगर संरचना से लेकर मौर्य, गुप्त, और दक्षिण भारत के चोल तथा चालुक्य जैसे राजवंशों द्वारा निर्मित मंदिरों, गुफाओं और स्तूपों तक, हर युग में स्थापत्य का रूप और उद्देश्य परिवर्तित होते रहे हैं।
इस शोध-पत्र में प्रारंभिक भारतीय वास्तुकला के विभिन्न रूपों का गहन अध्ययन किया गया है। इनमें प्रमुख रूप से स्तूप निर्माण, गुफा स्थापत्य, तथा मंदिरों की स्थापत्य परंपराएँ शामिल हैं। इन संरचनाओं के निर्माण में प्रयुक्त तकनीकी दक्षता, धार्मिक विचारधाराओं का प्रभाव, और क्षेत्रीय शैलियों की विशेषताएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मौर्यकाल के दौरान शिलालेख और पॉलिश्ड पत्थरों के स्तंभ, गुप्तकालीन मंदिरों में ऊर्ध्वमुखी शिखर तथा दक्षिण भारतीय मंदिरों में वास्तुशास्त्रीय पूर्णता दर्शाती है कि प्रारंभिक काल में भारतीय स्थापत्य किस हद तक विकसित था।
शोध का मुख्य उद्देश्य यह समझना है कि किस प्रकार प्रारंभिक भारतीय स्थापत्य न केवल धार्मिक भावना की अभिव्यक्ति बना, बल्कि उसने सामाजिक संगठन, कलात्मक नवाचार और सांस्कृतिक निरंतरता को भी स्थायित्व प्रदान किया। यह अध्ययन यह भी स्पष्ट करता है कि इन स्थापत्य कृतियों ने आगे चलकर भारतीय स्थापत्य परंपराओं की नींव रखी, जो आज भी विश्वभर में प्रशंसा प्राप्त कर रही हैं।
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