डाॅ. हेमलता
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का सम्पूर्ण सामाजिक दर्शन एवं दृष्टिकोण इस विश्वास पर आधारित था कि भारत गाँवों में बसता है, जिसकी लगभग तीन चैथाई जनता ग्रामीण परिवेश से आती हैं। वह परोक्ष व अपरोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। यदि भारत का वास्तविक दर्शन करना है तो महानगरों में नहीं गाँवों में जाकर कीजिये, जहाँ गरीबी और बेरोजगारी की समस्या सर्वाधिक है। तकनीकी ज्ञान तथा पूँजी की कमी के चलते प्राकृतिक एवं मानवीय संशाधनों का पूर्ण विदोहन सम्भव नहीं हो पा रहा है। वहाँ जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ रही है एवं जनाधिक्य की समस्या विद्यमान है। ऐसी परिस्थिति वाले देश के लिये कृषि विकास के साथ ग्रामीण रोजगार सृजन की अनिवार्यता को नाकारा नहीं जा सकता है। माना कि पिछले पाँच दशकों में गाँवों की स्थिति में सुधार हुआ है किन्तु यह पर्याप्त नहीं है क्योंकि ग्रामीण जीवन आज भी असुरक्षित है। कृषि के मशीनीकरण के बढ़ते उपयोग से खेतीहर मजदूरों के सामने बेरोजगारी की समस्या बढ़ती जा रही है। केन्द्र सरकार द्वारा गरीबी, बेरोजगारी की समस्या से निजात पाने के लिये अनेक कार्यक्रम एवं योजनायें चलायी गयी है, लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी है। मनरेगा, पूर्व में चलायी गयी योजनाओं से भिन्न है क्योंकि यह ग्रामीण जनसंख्या को रोजगार प्राप्त करने के अधिकार को वैधानिक गारण्टी प्रदान करती है। यह योजना प्रत्येक ग्रामीण परिवार के कम से कम एक वयस्क सदस्य को वर्ष में 100 दिन के रोजगार की गारण्टी देता है। केन्द्र सरकार द्वारा मनरेगा के तहत मजदूरों को दी जाने वाली मजदूरी की दरों को खेतीहर मजदूरों के लिये उपभोगता मूल्य सूचकांक से सम्बद्ध करने की घोषणा 06 जनवरी, 2011 को की गयी।1
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